पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे
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घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारा की ख़बर
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ