जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
Gulzar
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निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया