इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
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जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआअ'
मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ