जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
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की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी