आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
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रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
मौत का एक दिन मुअय्यन है
दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं