मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
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घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता