मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं
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हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें
है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे