जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
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दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की