सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए
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हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
ग़म खाने में बूदा दिल-ए-नाकाम बहुत है