शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं
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हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
लब-ए-ख़ुश्क दर-तिश्नगी-मुर्दगाँ का
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
कब वो सुनता है कहानी मेरी
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद