शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम
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अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के