शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
लोग कहते हैं कि है पर हमें मंज़ूर नहीं
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इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
मौत का एक दिन मुअय्यन है
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़