सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का
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हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'
मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये