सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुल-दस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का
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बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
कब वो सुनता है कहानी मेरी
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'