हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में
Jaun Eliya
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मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे