आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
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हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ग़म खाने में बूदा दिल-ए-नाकाम बहुत है
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही