जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं
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ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
कोई उम्मीद बर नहीं आती
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ