जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
Ahmad Faraz
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Allama Iqbal
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Gulzar
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कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं