हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना
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है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से