मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए
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जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
जान दी दी हुई उसी की थी
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब