जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
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बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
बे-पर्दा सू-ए-वादी-ए-मजनूँ गुज़र न कर