मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
तू और एक वो ना-शुनीदन कि क्या कहूँ
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काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे