आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का
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है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला