आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअ'द
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दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक