इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा
मरते हैं आरज़ू में मरने की
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल