तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़
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हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था
बहुत दिनों में तग़ाफ़ुल ने तेरे पैदा की
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को