हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
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हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
मरते हैं आरज़ू में मरने की
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार