गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
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इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज