'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं
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जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
कब वो सुनता है कहानी मेरी
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
तिरे जवाहिर-ए-तरफ़-ए-कुलह को क्या देखें