'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
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लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो