लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए
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हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ