हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या
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पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए