हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो 'असद'
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है
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या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द