'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते
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नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया