इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
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गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है