इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
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आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह