बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
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है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब