ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
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हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
जान दी दी हुई उसी की थी
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर