मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है
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बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
नहीं है ज़ख़्म कोई बख़िये के दर-ख़ुर मिरे तन में