ग़लती-हा-ए-मज़ामीं मत पूछ
लोग नाले को रसा बाँधते हैं
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रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
जान दी दी हुई उसी की थी
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब