पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
इस बलग़मी-मिज़ाज को गर्मी ही रास है
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यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
कोई उम्मीद बर नहीं आती
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
रखियो 'ग़ालिब' मुझे इस तल्ख़-नवाई में मुआफ़
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं