अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
उस दर पे नहीं बार तो का'बे ही को हो आए
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शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
निकोहिश है सज़ा फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-दिलबर की
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग