पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है
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दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़