कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
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हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं