जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की
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ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना
चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
मरते हैं आरज़ू में मरने की
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में