ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है
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मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं