ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए
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नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
कोई वीरानी सी वीरानी है
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो