यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
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बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'