ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
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बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'