न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
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मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
बात पर वाँ ज़बान कटती है
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
मरते हैं आरज़ू में मरने की
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में